हाइलाइट्स
कायस्थ घरों में 70 के दशक तक पनीर का इस्तेमाल ना के बराबर होता था
हर सीजन के साथ उस सीजन की सब्जियों को काटकर सुखाने का काम भी चलता रहता था
अचार और सब्जियों को सुखाने के अलावा कई तरह की मसालेदार मुंगोड़ियां और बड़ियां भी बनती रहती थीं
80 के दशक में देश में शुरू हुए फटाफट मैगी रिवोल्यूशन के बाद तो घरों में स्नैक, ब्रेकफास्ट और नाश्ते की परिभाषा ही बदल चुकी है. फास्ट फूड की नई संस्कृति लोगों के जीभ को भाने लगी है. जब मैगी शुरू नहीं हुई थी तब भी घरों में नाश्ते थे. हमारे अपने फास्ट फूड भी थे. कायस्थ खानपान में किस तरह के नाश्ते या फास्टफूड बनाए जाते थे और खूब पसंद आते थे.
आगे बढ़ने से पहले मैगी किस तरह देश में लांच हुई, उस ओर नजर दौड़ा लेते हैं. आईआईएम कोलकाता की ग्रेजुएट संगीता तलवार ने एक किताब लिखी, द टू मिनट रिवोल्यूशन. नेस्ले की टीम ने 80 के दशक में जब मैगी को लांच किया तो उससे पहले देशभर में लोगों की खानपान की आदतों, नाश्ते के तौरतरीकों पर काफी डाटा जुटाया गया. इसके बाद मैगी को देसी बाजार में उतारा गया.
80 के दशक के पहले देश में नूडल्स का प्रचलन बहुत कम था. ज्यादातर लोग इसके बारे में जानते ही नहीं थे. तब जब बच्चे स्कूल से आते थे तो मां के सामने सबसे बड़ी समस्या होती थी कि उसको वो फटाफट क्या बनाकर दे. कोई गेस्ट आ जाए तो उन्हें सर्व करने के लिए गिनी चुनी चीजें होती थीं. तब घरों में जो फास्टफूड बनते थे, उनमें पराठा, इडली, डोसा, अंडे, ब्रेड पकौड़े, पोहा, तले हुए चिप्स जैसे सीमित नाश्ते थे. दक्षिण भारतीय शैली के व्यंजनों की तैयारी पहले से करनी होती थी.
ऐसे में कायस्थ घर भी 70 और 80 के दशक में नाश्ते के मामले में कोई अलग नहीं होते थे. मुझको अच्छी तरह याद है कि हम सुबह कुछ सीमित नाश्ता करते थे. उसमें रात की बासी रोटी पर सरसों का तेल चिपुड़कर नमक और खास मसाले के साथ फैला दिया जाता था. फिर इसे रोल करके खाने को दे दिया जाता था. अक्सर इस रोटी को घी या तेल से सेंककर उसके भीतर रात की बची हुई सब्जी भी सुखाकर भर दी जाती थी. इसे हम लोग कट्टू कहते थे. हालांकि अब ये रोल कहा जाने लगा है.
हमारा आज के दौर का नाश्ता ज्यादा विस्तृत और विविधताभरा हो गया है. तब रात में भिगोए हुए काले चने को सुबह कटे हुए प्याज और मसाले के साथ छोंक दिया जाता था. नाश्ते में आलू के पराठे, चीला, पकौड़ियां, तले चिप्स, पापड़, साबुदाने की खिचड़ी, हलवा या पूरी-कचौड़ी जैसे व्यंजन मिलते थे. अक्सर पोहा, सूजी या आटे का हलवा भी नाश्ते में मिल जाता था.
उत्तर भारत के घरों में सुबह चना-लाई को प्याज के साथ भूनकर या सीधे सरसों तेल में भूनकर स्वादिष्ट नाश्ता तैयार हो जाता था. एक और पराठानुमा चीज खाने को मिलती थी, उसे घरों में दोस्ती कहा जाता था. उसमें आटे की एक गोल लोई लेकर उसमें हल्का सा घी लगाकर उसके ऊपर दूसरी आटे की लोई चपका इसे गोल बेलकर तावे पर पराठे की तेल या घी से सेंका जाता था. अब लगता है कि उसका नाम दोस्ती इसलिए रखा गया होगा, क्योंकि उसमें दो आटे की लोइयां साथ जोड़कर बेली जाती थीं.
कई तरह की पकौड़ियां
पकौड़ियां कई तरह की होती थीं. बेसन की पकौड़ियां तो हर घर में प्रचलित हैं. आटे में आलू, प्याज, मिर्च काटकर उसमें आजवाइन, जीरा और धनिया मसाला मिलाकर जब पकौड़ी बनाई जाती थी और इसे अचार या चटनी के साथ खाया जाता था तो आनंद आ जाता था. कई और तरह की पकौड़ियां बनती थीं. मूंग की पकौड़ी या मूंगोडी हमेशा साफ्ट होती थी, वहीं अगर चने की दाल को भिगोकर उसकी पकौड़ी बनाई जाए तो हमेशा कुछ करारी होती थी.
चीला भी बेसन, आटे, मूंग या चावल के आटे से अलग अलग तरह बनता था. आप कह सकते हैं कि कायस्थों के किचन में ये सारे व्यंजन लगातार बनते थे. शाम का समय अक्सर खास नाश्ते का होता था, जिसमें कबाब, आलू की टिक्की, वड़ा, मटर की चाट, बेसन के गट्टे या फरे होते थे. हां, जाड़े का सीजन हो तो नाश्तों की विविधता का अंदाज और समृद्ध हो जाता था.
हरी मटर और ताजे भुट्टे के दानों की घुघनी
हरी मटर और भुट्टे के सीजन में तकरीबन रोज ही सुबह या शाम को नाश्ते में घूघनी या नरम भुट्टे के दानों को मसालों और जीरे आदि से फ्राई करके स्वादिष्ट व्यंजन तैयार हो जाता था. घूघनी में ढेर सारी मटर छीनकर उसके दानों को सरसों तेल में जीरे के साथ फ्राई कर देते हैं. चाहें तो उसमें पतले कटे आलू भी मिलाकर फ्राई करें, ऊपर से काली मिर्च और स्वादानुसार नमक. मटर अगर ताजी हो और सुबह या शाम के नाश्ते में घूघनी मिल जाए तो बात ही क्या.
पनीर का इस्तेमाल नहीं के बराबर था
वैसे तब कायस्थ घर के किचन में ना तो पनीर का उपयोग ज्यादा देखा गया, ना छोले का और ना ही राजमा का. कभी कभार दूध को फाड़कर छेना बनाया जाता था. उनके व्यंजन जरूर बनते थे. अब हमारे घरों में नाश्ते के तौर पर प्रचलित हो गए दक्षिण भारतीय व्यंजन भी तब उत्तर भारत के घरों में नहीं के बराबर बनते थे. ये 90 के दशक के दौरान हमारे किचने में आए. तब तक सोयाबीन के नगेट्स भी बाजार में नहीं बिकते थे, ये 80 के दशक के मध्य में भारतीय बाजार में आना शुरू हुए.
दाल में अमिया का इस्तेमाल
तरह तरह की दालों के भी रंग निराले थे. अक्सर गर्मियां आते ही अरहर की दाल में हरी अमिया (छोटा हरा आम) काटकर मिलाई जाती थी. फिर तो दाल खटास के साथ ज्यादा स्वादिष्ट हो जाती. जब आम का सीजन आता था तो कच्चे आमों को काटकर छत पर सुखाया जाता. इसे साल भर खटाई के तौर इस्तेमाल किया जाता. कई बार इन्हीं दालों में आलू को साफ कर और धोकर डाल दिया जाता था. ताकि ये उसके साथ ही उबल जाएं और खाने के साथ उनका भुरता बना जाता था.
अचारों का लगातार चलने वाला उपक्रम
आमों के आचार बनने का भी सीजन यही होता था.बड़े बड़े चीनी मिट्टी के मर्तबान में अगर गर्मी के सीजन में आम के अचार बनते नजर आते थे. दूसरे सीजन में दूसरे अचार. अलग सीजन में अलग सब्जियों को सरसों के तेल और मसालों, नमक के साथ मिलाकर धूप में रख दिया जाता था, ये कई दिन धूप में रखे जाते थे. इसमें मुख्य तौर पर आम, कटहल, नींबू, गोभी और मिर्च के अचार जरूर होते थे. ये इतनी तादाद में होते थे कि सालभर आराम से खाया जा सके.
सब्जियों को सुखाकर अगले सीजने के लिए सहेजना
इसी तरह हर सीजन के साथ उस सीजन की सब्जियों को काटकर सुखाने का काम भी चलता रहता था, ताकि उनका स्वाद कभी भी लिया जा सके. गोभी लेकर कटहल तक कई सब्जियों को काटकर माला बनाकर छत की दीवारों पर कील पर लटका दी जाती थीं. चादर पर भी सुखाई जाती थीं. सब्जियों को सुखाकर पूरे सीजन उनके इस्तेमाल का काम राजस्थान में भी बहुत होता है. मैं एक बार जब नाथद्वारा गया तो वहां बाजार में मैने दुकानों पर तमाम तरह की सूखाई गई सब्जियां बिकते देखीं.
मसालेदार मुगोंड़ियां और बड़ियां
अचार और सब्जियों को सुखाने के अलावा कई तरह की मसालेदार मुंगोड़ियां और बड़ियां भी बनकर छतों पर सूखने के लिए आ जाती थीं. आलू की फसल आने के बाद चिप्स और पापड़ बनने का काम शुरू हो जाता था. कायस्थों के पुराने घरों में जाएं तो ऐसा लगता है कि मानो वहां हमेशा खाने का उपक्रम ही चलता रहता था. अब तो ये रवायत करीब खत्म सी हो गई है.
चूल्हा थमता था तो बस रात में चंद घंटों के लिए
अक्सर लोग कहते मिल जाते थे कि भाई खाना अगर बनता है तो कायस्थों के घरों में ही. वैसे ये बात सही है कि बड़े परंपरागत कायस्थ परिवारों में घर का चूल्हा करीब दिनभर ही जलता रहता था. अगर थमता है तो रात में ही कुछ घंटों के लिए.
अब गेहूं का एक खास व्यंजन
अब अंत गेहूं के एक खास व्यंजन के साथ. जो कायस्थों के घरों में कभी-कभार खासतौर पर बनता था और मीट को मात देता थी. इसे गेहूं के प्रोटीन की सब्जी या गेहूं के सत्व की सब्जी भी कहा जाता है.
उससे पहले गेहूं के बारे में कुछ चर्चा कर ली जाए. देवेंद्र मेवाड़ी की किताब फसलें कहें कहानी के अनुसार, 12-14,000 साल पहले गेहूं के पुरखे जंगली घास की प्रजाति थे. फिर प्रकृति के खेल से खाने लायक गेहूं का जन्म हुआ. इसके सबसे पुराने अवशेष इराक के जारमो नामक स्थान में मिलते हैं. जारमो में ईसा से करीब 6700 साल पुराने गेहूं के बीजों के अवशेष मिले. मोहनजोदड़ो में गेहूं के जो बीच मिले, वो 5000 साल पुराने हैं. गेहूं की रोटी को सभी धर्मों में बहुत पवित्र माना गया है. गेहूं को “अनाजों का राजा” कहा जाता है.
गेहूं को अगर दो-तीन दिनों तक भिगोकर पीसा जाए तो सफेद रंग का एक चिपचिपा पेस्ट मिलता है. इसे गेहूं का सत्व कहते हैं. अगर इसे पानी से अलग कर दें तो ये सत्व कई काम आ सकता है. इसकी सब्जी से लेकर हलवा और छोटी पापड़ी सूखाई जा सकती है. खैर हम बात गेहू के सत्व की लजीज सब्जी की बात कर रहे हैं. इस सत्व को छोटी-छोटी बड़ियों के रूप में तल लिया जाता है. फिर इसे जब पीसे प्याज और मसालों के साथ सब्जी बनाते थे तो इसका स्वाद और अंदाज दोनों मीट को मात देता है. इसका हलवा भी उतना ही स्वादिष्ट होता है.
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FIRST PUBLISHED : January 16, 2024, 13:17 IST